Thursday, August 15, 2019

(आलेख )प्राइवेट बनाम सरकारी : शिक्षा में किसका पलड़ा भारी ?

                                -- स्वराज करुण 
 अगर कोई पूछे कि सरकारी और प्राइवेट शिक्षा संस्थानों में पढ़ाई और रिजल्ट के मामले में  किसका पलड़ा भारी है तो मुझ जैसे अधिकतर लोग सरकारी संस्थाओं के पक्ष में होंगे । लेकिन आज की स्थिति में समाज का मानसिक झुकाव सिर्फ़ 'शो-बाजी'  के कारण प्राइवेट संस्थाओं की ओर बढ़ता जा रहा है ,जो हमारी नयी और भावी पीढ़ियों के लिए घातक हो सकता है ।
     गंभीरता से विचार करें और देखें तो मालूम होगा कि देश के उच्च और सर्वोच्च  पदों पर आसीन 99 प्रतिशत  वर्तमान और भूतपूर्व महानुभावों ने अपनी प्राथमिक से लेकर विश्वविद्यालय स्तर की शिक्षा सरकारी स्कूलों और सरकारी कॉलेजों में हासिल की है ,जिनमें राष्ट्रपतियों और प्रधानमंत्रियों सहित बड़ी संख्या में केंद्रीय मंत्री , राज्यों के मुख्यमंत्री और मंत्रीगण ,सांसद और विधायकगण , कई प्रसिद्ध वैज्ञानिक ,शिक्षाविद , प्रसिद्ध डॉक्टर और इंजीनियर ,  साहित्यकार ,कलाकार आदि शामिल हैं । प्रशासनिक सेवाओं के उच्च पदस्थ अधिकारियों में से भी कम से कम 90 प्रतिशत अफसरों की प्रारंभिक शिक्षा सरकारी स्कूलों में हुई है ।
      वहीं दूसरी तरफ़ हम देखते हैं कि प्राइवेट शिक्षा संस्थानों ने देश को अब तक  कोई उल्लेखनीय प्रतिभाएं नहीं दी हैं । इसके बावज़ूद  हमारे यहाँ प्राइवेट स्कूल -कॉलेजों ,कोचिंग संस्थाओं और प्राइवेट विश्वविद्यालयों की मनमानी विज्ञापन बाजी से  समाज में उनका भ्रामक आकर्षण बढ़ता जा रहा है ,जो गहरी  चिन्ता और चिन्तन का विषय  बन गया है !  उनमें से अधिकांश तो कई बड़े -बड़े करोड़पति और अरबपति रसूखदारों के संस्थान होते हैं और कई तो ऐसी संस्थाएं खोलकर शिक्षा की दुकान चलाते हुए करोड़पति और अरबपति बन जाते हैं ।
    प्राइवेट स्कूल -कॉलेजों और निजी विश्वविद्यालयों के नाम भी या तो अंग्रेजीनुमा होते हैं या फिर उनका नामकरण ऐसा लगता है मानो उनके  मालिकों के नाम या  सरनेम पर हुआ है । इससे उन संस्थाओं के प्रति आम जनता और विद्यार्थियों में आत्मीयता की भावना नहीं होती , जबकि सरकारी शिक्षण संस्थाओं के नाम प्रसिद्ध स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों , अमर शहीदों और  अन्य कई महान विभूतियों और दानदाताओं के नाम पर रखे जाते हैं , ताकि विद्यार्थी उनसे प्रेरणा ग्रहण कर सकें।
                अगर स्कूली शिक्षा की गुणवत्ता पर विचार करें तो सरकारी स्कूलों में जितने प्रशिक्षित अध्यापक होते हैं ,उतने प्राइवेट में कहाँ होते हैं ?  कई राज्यों के सरकारी स्कूलों में बच्चों को  मध्यान्ह भोजन और  गणवेश के साथ -साथ पाठ्य पुस्तकें भी मुफ़्त मिलती हैं ,जबकि प्राइवेट स्कूलों में नहीं । बोर्ड परीक्षाओं की मेरिट सूची में  भी सरकारी स्कूलों के बच्चों का पलड़ा भारी रहता है ,जबकि प्राइवेट स्कूलों के इने गिने बच्चे ही मेरिट में आते हैं । यही स्थिति विश्वविद्यालयों की मेरिट सूचियों में भी देखी जा सकती है ।
   दरअसल प्राइवेट स्कूल -  कॉलेजों में  सितारा होटलनुमा भवनों और उसी तरह की  होटलनुमा सुविधाओं के अलावा कुछ  रहता भी नहीं । जैसे -एयरकंडीशनरों से सुसज्जित क्लास रूम , जलपानगृह और एसी वाले डायनिंग हॉल ,  स्कूल बसों की सुविधाएं आदि । फीस भी उनकी काफी तगड़ी होती है ।  इनके झूठे  ग्लैमर के मायाजाल में फँसकर  पैसे वाले अभिभावक  तो अपने बच्चों को वहाँ दाखिल करवा लेते हैं ,जबकि गरीब,मध्यम और निम्न मध्यम वर्गीय अभिभावकों और उनके बच्चों में हीन भावना पैदा होती  है  । 
     हमने सुना है कि दिल्ली की केजरीवाल सरकार ने शिक्षा के क्षेत्र में ऐसी विसंगतियों को दूर करने का अच्छा प्रयास किया है । यह भी बताया जाता है कि दिल्ली सरकार ने शासकीय स्कूलों को निजी क्षेत्र के स्कूलों की तरह शानदार भवनों और शैक्षणिक उपकरणों की भी व्यवस्था की है ।
       सरकारी क्षेत्र में  जवाहर नवोदय विद्यालयों को ' रोल मॉडल'  के रूप लिया जा सकता है ,लेकिन ये मात्र अपवाद हैं । काश कि सभी सरकारी स्कूल सुविधाओं के मामले में निजी क्षेत्र के सितारा होटल जैसे स्कूलों की तरह न सही ,कम से कम  जवाहर नवोदय विद्यालयों जैसे तो  हो जाएं ।
       -- स्वराज करुण

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