Monday, March 14, 2011

ममता दीदी ! सिर्फ इतनी मेहरबानी चाहिए !

 '  ममता दीदी  और कुछ करें या न करें ,लेकिन हम जैसे लाखों -लाख रेलयात्रियों पर इतना एहसान ज़रूर कर दें   कि रेलगाड़ियों को सही समय पर चलवा दें '- यह  उन रेल-मुसाफिरों की दर्द भरी सलाह है ,जो छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के रेलवे-जंक्शन पर कल तेरह मार्च को हावडा -मुम्बई लोकमान्य तिलक समरसता एक्सप्रेस का इंतज़ार उसके आगमन के निर्धारित समय ,याने कि दोपहर १२.५० बजे से लगातार कर रहे थे और रेल-प्रबंधन की मेहरबानी से यह गाड़ी रात आठ बजकर चालीस मिनट पर स्टेशन पहुँची .
    करीब-करीब पूरे  आठ घंटे विलम्ब से आयी इस एक्सप्रेस ट्रेन  के इंतज़ार में स्टेशन पर दोपहर से शाम और फिर रात घिर आयी. कहते हैं-समय बहुत कीमती होता है ,  गुजरा हुआ वक्त लौट कर नहीं आता . ऐसे में जिन यात्रियों ने रायपुर से नागपुर , मुम्बई जाने के लिए कई दिन और कई माह पहले बर्थ रिजर्व कराया था , अपने-अपने गंतव्यों तक समय पर पहुँचने की योजना बनायी थी , उनका काफी कीमती समय बेकार चला गया . उनके इस नुकसान की भरपाई कौन करेगा ?  कई बेरोजगार युवाओं को कंपनियों में नौकरी के लिए इंटरव्यू देने महानगरों की यात्रा करनी थी . ट्रेन सही वक्त पर नहीं आने के कारण उन्हें  नौकरी के सुनहरे  मौके से वंचित होना पड़ा और उनका भविष्य चौपट हो गया . उन्हें इसकी क्षति-पूर्ति कौन देगा और कौन इसकी नैतिक जिम्मेदारी लेगा ?  गाड़ी के इंतज़ार में स्टेशन पर सपरिवार बैठे-बैठे  या फिर प्लेटफार्म पर  इस  कोने से उस कोने तक फालतू  चहल-कदमी करते मुसाफिरों को आठ-आठ घंटे तक बोरियत भरा जो मानसिक तनाव हुआ , मनो-चिकित्सकों की मानें तो उसका असर भी सेहत पर किसी न किसी रूप में   ज़रूर हुआ होगा . इसका मुआवजा उन्हें  कौन देगा ? गंभीर बीमारियों से पीड़ित कई मरीजों को इलाज के लिए नागपुर , मुम्बई के नामी अस्पतालों में समय पर पहुंचना ज़रूरी था , ट्रेन घंटों लेट हो जाने पर उनकी तो जान पर बन आयी ! इसका जवाबदार कौन ?
   कुछ यात्री कह रहे थे -गनीमत है, ममता दीदी के कर्मचारियों की मेहरबानी से इस ट्रेन को महज़ आठ घंटे की देरी हुई , यहाँ तो कई रेलगाडियाँ  बारह-बारह घंटे देर से चलती हैं .   ऐसा भी नहीं था कि इस गाड़ी में सिर्फ रायपुर के स्थानीय लोगों ने सफर करने का कार्यक्रम बनाया हो  और घंटों देरी होते देख घर लौट गए हों कि रेल्वे इन्क्वारी से फोन पर गाड़ी की लोकेशन पूछ कर फिर आ जाएंगे , जिन लोगों को छत्तीसगढ़ के दूसरे जिलों से सैकड़ों किलोमीटर बसों की यात्रा कर रायपुर आकर इस ट्रेन में यात्रा करनी थी, वे तो  प्लेटफार्म  या वेटिंग  हाल  को छोड़ कर  इस डर से स्टेशन से बाहर  नहीं गए कि विलम्ब से चलने वाली गाड़ी जल्दी भी आ सकती है -ऐसी सूचना पूछताछ काउंटर के बोर्ड पर कई बार  लगी देखी गयी है.  रेल-प्रबंधन या सही शब्दों में कहें तो कुप्रबंधन से इस भयानक विलम्ब का शिकार हुए कुछ यात्रियों को मैंने यह कहते हुए सुना  कि  रेल्वे वालों के लिए आपातकाल का वह दौर बिल्कुल ठीक था ,जब रेलगाडियाँ एकदम सही वक्त पर चला करती थीं और कोई भी व्यक्ति अपनी घड़ी का समय उनसे मिला सकता था . इन यात्रियों का कहना था कि उन दिनों रेलवे में कठोर अनुशासन के डंडे की मार  और नौकरी जाने के डर से रेल-अधिकारी और कर्मचारी समय के पाबंद हो चुके थे , लेकिन आज के हालात देखें तो लगता है कि वे अब समय के किसी फटे-पुराने कपड़े पर पैबंद लगा रहे हैं .
     कुछ यात्री कह रहे थे कि रेल-मंत्री फिलहाल भले ही नयी रेलगाडियाँ न चलवाएं , सिर्फ इतना कर दें कि अभी उनके पास देश में जितनी गाडियां हैं , उन्हें हर दिन सही समय पर चलवा  दें .एक्सप्रेस -ट्रेनों को कछुआ -चाल नहीं, बल्कि घोड़े की रफ़्तार से दौड़ने का कठोर फरमान जारी करें .मानव-जीवन में  समय ही सबसे अधिक मूल्यवान और सबसे बड़ा बलवान होता है. जो उसकी कदर नहीं जानता , या कदर नहीं करता , समय  उसकी कदर नहीं करता और उसे अपने ढंग से सबक ज़रूर सीखा देता   है.  इसके पहले कि समय उन्हें कोई सबक सिखाए , क्या   रेल-प्रशासन और प्रबंधन से जुडे लोग स्वप्रेरणा से समय की कदर करना सीखेंगे ?  अगर ऐसा हो सका तो यह ममता दीदी की हम लोगों पर  बड़ी  मेहरबानी होगी .  यात्रियों के बीच चल रही यह चर्चा, ज़ाहिर है कि बात निकली थी तो दूर तक ज़रूर जाती ,लेकिन तभी बारह बजकर पचास मिनट वाली ट्रेन आठ घंटे की लंबी प्रतीक्षा कराने के बाद आठ बजकर चालीस मिनट पर वहाँ पहुँच गयी और सब लोग अपने-अपने डिब्बों की तरफ बढ़ने लगे .
                                                                                                                -  स्वराज्य करुण                
                                                                                                     

4 comments:

  1. काश कि ममता दी आपकी आवाज़ सुन सकती। संसद के शोर से कानों पर असर तो पडता ही है। इस लिये मन्त्री लोगों की बात कम सुन पाते हैं। शुभकामनायें।

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  2. बंगाल एवं बंगाली के सिवा ममता दी को कुछ समझ में नहीं आता। चुनाव के बाद ही सुनाई देगा।

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  3. दरअसल देश के मंत्री अपने प्रदेश के ही होते हैं ! हमें तो ऐसा ही लगता है !
    नागरिकों को मंत्री से मेहरबानी मांगनी पड़े ये कैसा दिन देख रहा हूं लोकतंत्र में !

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