Wednesday, November 24, 2010

(लघु-कथा ) पेट-पूजा के लिए ज़रूरी है भेंट-पूजा !

                                                                                                           स्वराज्य करुण
  भांजी की शादी में गाँव जाना हुआ .वर्षों बाद कई आत्मीय-स्वजनों और बचपन  के दोस्तों से मुलाक़ात हुई . अग्रसेन भवन के नाम से प्रसिद्ध वहाँ की एक मात्र धर्मशाला में बारात  के स्वागत और विवाह समारोह की तैयारियों में हम सब लगे हुए थे . थोड़ी देर  थकान मिटाने के इरादे से कोने में रखी  कुछ कुर्सियों में से एक पर मैं बैठा ही था कि सरजू चाचा  आ गए. कुछ मिनटों में जमुना  बुआ भी आ गयीं . दोनों से अभिवादन के बाद हाल-चाल जानने का सिलसिला शुरू हुआ .पता चला कि दोनों अपनी -अपनी सरकारी नौकरियों से रिटायर हो चुके हैं . सरजू चाचा  तीन साल पहले सेवा-निवृत्त हुए ,जबकि जमुना बुआ का रिटायरमेंट पिछले साल हुआ.
    उत्सुकतावश उनकी पेंशन के बारे में पूछने पर दोनों ने बताया कि काफी मशक्कत के बाद अब नियमित रूप से मिलने लगी है,लेकिन  दफ्तरों  में भेंट पूजा देने के बाद ही यह मुमकिन हो पाया है. लोक-निर्माण विभाग में चालीस साल की लम्बी नौकरी के बाद  टाईम-कीपर के पद से रिटायर हुए सरजू चाचा ने कहा - जिस दफ्तर में वर्षों तक नौकरी की  उसी दफ्तर में अपना  पेंशन प्रकरण तैयार करवाने के लिए बाबू को उसकी डिमांड पर खिलाना और पिलाना भी पड़ा .इसके बाद भी तीन  हज़ार रूपए अलग से देने पड़े . तब कहीं उसने मेरा प्रकरण जिला-कोषालय भिजवाया .फिर वहाँ भी बाबू और अधिकारी को 'सुविधा-शुल्क ' देना पड़ा . ट्रेजरी- लिपिक  ने फाईल बढ़ाने के चार  हज़ार रूपए  लिए,  बोला -पांच सौ मेरे और बाकी अफसर के . मरता क्या न करता ! देना पड़ा . लेकिन देने से काम बन गया .वरना मुझसे पहले रिटायर हुए कुछ लोगों की पेंशन तो आज तक शुरू नहीं हो पायी है . जमुना बुआ शिक्षिका थीं .वे भी करीब छत्तीस साल की नौकरी के बाद रिटायर हुई थीं .उन्होंने अपनी आप-बीती सुनायी .हर महीने जी.पी. एफ. के लिए वेतन से कटौती होती थी .  रिटायर होने तक भविष्य-निधि के मेरे खाते में चार लाख रूपए जमा हो गए थे.लग रहा था कि एक छोटा-सा मकान बनाने का वर्षों पुराना सपना अब साकार हो जाएगा , लेकिन मुझे क्या मालूम था कि  मेरी इस राशि पर शिक्षा कार्यालय वालों की नज़रें लगी हुई थीं . वहाँ के अफसर और बाबुओं का  मानना था कि यह राशि मुझे फ़ोकट में मिल रही है. इसलिए इसका कुछ हिस्सा उन्हें भी मिलना चाहिए  अकेले जी.पी. एफ. का ही काम नहीं था बल्कि अभी तो मेरा पेंशन केस भी इन्हीं लोगों के हाथों तैयार होना था . भेंट-पूजा नहीं देने का मतलब तुम समझ सकते हो-भविष्य-निधि की राशि निकलने और पेंशन शुरू होने में देरी. इससे नुकसान तो  आखिर  मुझे ही होना था . इसलिए मजबूरी थी .मैंने सरजू चाचा और जमुना बुआ से कहा - आप लोगों ने रिश्वत देकर काम करवाया . चाहते तो उनको घूस लेते रंगे हाथों पकडवा सकते थे.जमुना बुआ बोलीं- शिक्षा कार्यालय में एक सेवा-निवृत्त कर्मचारी से  वहीं के एक बाबू ने  पेंशन केस बनने के लिए रिश्वत माँगी . उसने बाबू को घूस लेते रंगे हाथ पकड़वा दिया , लेकिन हुआ क्या ? उसका पेंशन प्रकरण आज भी अटका हुआ है . दूसरा बाबू उसकी फाईल को छू भी नहीं रहा है और इस घटना के बाद भी वहाँ अन्य रिटायर्ड लोगों से जबरिया 'दान-दक्षिणा ' लेने का सिलसिला थमा नहीं है .
     जमुना बुआ कहने लगीं- आज के समय में भलाई इसी में है कि जहां काम अटका है, वहाँ किसी को कुछ दे दुआ कर अपना रास्ता निकलवा लो.दफ्तर में विराजमान देवी-देवताओं को भेंट-पूजा दोगे, तभी तुम रोज अपने  और अपने परिवार के लिए दो वक्त की पेट-पूजा का प्रबंध कर पाओगे . नहीं तो तुम्हारी फाईल दफ्तर की आलमारी में यूं ही धूल खाती पड़ी रहेगी. बाबू उसे छुएगा भी नहीं . वह सीधे कह  देगा कि अभी उसके पास दफ्तर की और भी कई ज़रूरी फाइलें रखी हैं. पहले उनका निराकरण हो जाए , फिर आपकी बारी आएगी . रिटायर्ड लोगों के लिए तो उनके पास कथित रूप से समय रहता ही नहीं. बाबुओं और अफसरों के तेवर देख कर लगता है कि ये लोग आजीवन इन्हीं कुर्सियों और इन्हीं टेबलों पर जमे रहेंगे और कभी रिटायर ही नहीं होंगे . सरकारी कर्मचारी होने के बावजूद ये लोग किसी रिटायर्ड सरकारी कर्मचारी की दिक्कतों को महसूस नहीं करते ,या फिर महसूस करना नहीं चाहते. जब ये अपनी ही जमात याने कि सरकारी सेवकों की बिरादरी से ऐसा सलूक करते हैं तो आम-जनता के साथ इनका व्यवहार कैसा रहता होगा , कोई भी समझ सकता है.
               बातचीत चल ही रही थी कि बैंड-बाजे की आवाज़ नजदीक आ गयी और हम लोग बारात के स्वागत के लिए गेट पर आ गए .                                                                                                                  स्वराज्य करुण

9 comments:

  1. बिलकुल सही कहा। मैने रिश्वत नही देने का और नही लेने का प्रण ले रखा है इस लिये पेंशन के लिये रिश्वत नही दी। मेरी पेंशन एक साल बाद लगी वो भी कई चिट्ठियाँ मन्त्री को लिखी तो। बाबूओं के मुंह मे रिश्वत का खून लग गया है, किसी तरह कम होता नज़र नही आता। आभार

    ReplyDelete
  2. आपने बढ़िया लघुकथा लिखी है और एक ज़रूरी बात उठाई है ...
    ऐसे सरकारी बाबुओं को उसी वक्त नौकरी से निकल देना चाहिए और उनका पेंसिओं बंद कर देना चाहिए ...

    ReplyDelete
  3. जब वही बाबू खुद रिटायर होता है तो उसे भी इसी परिस्थिति से गुजरना पड़ता है .तब उसे पता चलता है सेवा से जुदा होने वाले का दर्द .

    ReplyDelete
  4. बात तो सही कही है मगर यहाँ सुनवाई कहाँ होती है…………ये तो आम जनता का दर्द है रोज ही भुगतती है।

    ReplyDelete
  5. तभी तो सब दान दक्षिणा दे कर काम निकलवाते हैं ...यह मजबूरी के साथ ज़रूरी भी बन चुकी है ..

    ReplyDelete
  6. नाजुक पोस्‍ट, न जाने कौन क्‍या सीख और प्रेरणा ले.

    ReplyDelete
  7. बड़े सत्य को सहेजे है आपकी यह लघुकथा....

    ReplyDelete
  8. pura system hi bigda huva hai jo le vo badnaam jo na le to vo badnaam jo le is liye badnaam ki vo lete kyo hai aur jo nahi leta to log kahte hai ki leta nahi sala jyada imandaar hai is liye kam slow karta hai. par pure system ko hamne bigada hai is liye ham aam janta ko hi pahel karni hogi ki guss dena band aur jo kam na kare ganral tadi

    ReplyDelete