Wednesday, September 22, 2010

यह बेकार की जिद है पगले !

                              मस्जिद के भीतर मंदिर था कि मंदिर के भीतर मस्जिद है ,  
                               यह बेकार की जिद है पगले ! यह बेकार की जिद है    ! !
                                        
                                         धरती   की छाती पर लाखों  मंदिर-मस्जिद खड़े हुए हैं ,
                                         जिनके आँगन लोग हजारों भूखे-प्यासे पड़े हुए हैं  !  
                                         नासमझों की नासमझी का कैसा है यह खेल-तमाशा ,
                                         कर्फ्यू के काले साये में  बेघर पंछी डरे हुए हैं  !

                               गड़े हुए मुर्दे न उखाडो , कुछ भी न मिलेगा यह निश्चित है ,
                               यह बेकार की जिद है पगले ! यह बेकार की जिद है ! !
            
                              कमर टूट गयी महंगाई से मेहनत करते पीढ़ी -दर -पीढ़ी 
                             मुफ्तखोर के हाथों में ही नाच रही सफलता सीढ़ी !
                            मज़हब उसके मंसूबों का रक्षक बन कर तना हुआ है 
                             उसके ही नापाक इरादों के कीचड में  सना हुआ है  !

                           लाशों के अम्बार पे बैठा, हंसता जैसे कोई गिद्ध है ,
                           यह बेकार की जिद है पगले ! यह बेकार की जिद है  ! !
                    
                           बन भी जाए गर मंदिर-मस्जिद तो क्या गरीबी मिट जाएगी ,
                           बेकारी की गहन समस्या  पलक झपकते  हट  जाएगी ?
                           झोपड़ियों की स्याह छाँव में आ जाएगी क्या खुशहाली ,
                           बोलो क्या गारंटी दोगे   कोई हाथ न होगा खाली ?


                      भूखे-पेट भजन क्या होगा , यह सच्चाई स्वयं-सिद्ध है ,
                      यह बेकार की जिद है पगले ! यह बेकार की जिद है ! !


                         वह मज़हब का व्यापारी है  मज़हब ही व्यापार है उसका ,
                         सिर्फ मतलब का है पुजारी , मज़हब ही हथियार है उसका !
                         उसके सारे दांव -पेंच को जनता भी अब जान गयी है ,
                          उसके नकाबपोश चेहरे को ठीक-ठीक पहचान गयी है !
   
                   आओ  उसका नकाब उतारें , इसमें ही हम सबका हित है ,
                   यह बेकार की जिद है पगले ! यह बेकार की जिद  है ! !  

                                                                        -  स्वराज्य करुण





              
                    

17 comments:

  1. आओ उसका नकाब उतारें , इसमें ही हम सबका हित है ,
    यह बेकार की जिद है पगले ! यह बेकार की जिद है ! !
    अच्‍छी रचना .. बहुत सही !!

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  2. वह मज़हब का व्यापारी है मज़हब ही व्यापार है उसका ,
    सिर्फ मतलब का है पुजारी , मज़हब ही हथियार है उसका !
    उसके सारे दांव -पेंच को जनता भी अब जान गयी है ,
    उसके नकाबपोश चेहरे को ठीक-ठीक पहचान गयी है !

    एकदम सही कहा .......

    पढ़े और बताये कि कैसा लगा :-
    (क्या आप भी चखना चाहेंगे नई किस्म की वाइन !!)
    http://thodamuskurakardekho.blogspot.com/2010/09/blog-post_22.html

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  3. बहुत अच्छा लगा आपके ब्लॉग पर पहली बार आकर.... आपकी रचनाएँ ... बहुत मीनिंगफुल हैं....

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  4. बन भी जाए गर मंदिर-मस्जिद तो
    क्या गरीबी मिट जाएगी ?
    बेकारी की गहन समस्या
    पलक झपकते हट जाएगी ?
    झोपड़ियों की स्याह छाँव में
    आ जाएगी क्या खुशहाली ?
    बोलो क्या गारंटी दोगे
    कोई हाथ न होगा खाली ?
    भूखे-पेट भजन क्या होगा
    यह सच्चाई स्वयं-सिद्ध है

    बिलकुल सही बात कही आपने इस सुन्दर कविता के माध्यम से . वास्तविकता यह है कि अब वो समय आगया है जब हम सभी को इस जिद्द को छोड़ कर ऊपर उठना चाहिए .....उन्नति की ओर ध्यान देना चाहिए .....वर्ना प्रगति की राह पर हम बहुत पीछे रह जाएंगे
    सादर

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  5. दोगले लोगों ने हर जगह लडवाया है.
    मंदिर मस्जिद का झगडा करवाया है.

    सियासी रोटी सेक रहे उल्लू बनाकर
    अपनों को ही अपनों से सदा लडवाया है.

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  6. आप सब की त्वरित टिप्पणियों के लिए ह्रदय से आभार .

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  7. ज़बरदस्त ! बेहतरीन ! ऐसे ही विचारों की ज़रुरत है !

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  8. बहुत सुन्दर भाव और अभिव्यक्ति के साथ शानदार रचना लिखा है आपने जो काबिले तारीफ़ है! उम्दा प्रस्तुती!

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  9. aapke blog par pahlee vaar hee aana huaa...........
    bahuuuuuuuut accha laga...........


    मज़हब उसके मंसूबों का रक्षक बन कर तना हुआ है
    उसके ही नापाक इरादों के कीचड में सना हुआ है !

    bilkul sahee.......
    nij swartkee ranneeti ka palda bada bharee hai...........

    kash janhit kee sabhee soche.......
    bahut acchee soch kee acchee rachana.....

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  10. सार्थक रचना ,बधाई

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  11. बहुत अच्छी रचना ....सटीक और सार्थक

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  12. आदरणीय सर,मैं तो चाहता हूँ की आपकी यह कविता देश का हर व्यक्ति पढ़े,और इस बात पर चिंतन करें की हमारी प्राथमिकताएं क्या होनी चाहिए,हमारे लिए क्या अधिक महत्वपूर्ण है? हमें कौन सी बातें आगे बढ़ने से रोक रही हैं? क्यूँ आजादी के साठ वर्ष से अधिक गुजर जाने के बाद भी हम अपेक्षित तरक्की नहीं कर पाए हैं? हमसे जो पीछे थे,वो आज हमसे आगे क्यूँ है? हमारी उर्जा,समय और बुद्धि किन किन समस्याओं को हल करने में लगनी चाहिए और हम अपनी बुद्धि, उर्जा और समय किन चीजों को हल करने में लगा रहे हैं? बेहद सुन्दर पंक्तियाँ. सर,ये आपके ही दिल की बस बात नहीं है,मेरे दिल की भी बात है और मुझे लगता है हम सबके दिल की बात होगी .

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  13. आप सबकी आत्मीय टिप्पणियों के लिए हार्दिक आभार .

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  14. भूखे-पेट भजन क्या होगा , यह सच्चाई स्वयं-सिद्ध है ,
    यह बेकार की जिद है पगले ! यह बेकार की जिद है !!

    बहुत अच्छी रचना

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  15. हम में से हर एक को चाहिये कि ज्यादा से ज्यादा लोग ये जाने कि अयोध्या पर फैसला कुछ भी हो हमें हर हाल में इस पन्ने को पलट कर आगे बढना है और हम अपने ब्लॉग पर ये विनती तो कर ही सकते हैं । पाच हजार हिंदी ब्लॉगर क्या नही कर सकते । आपकी रचना बहुत सशक्त और अर्थपूर्ण है । आपको बधाई । आपकी और रचनाएं भी पढूंगी ।

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  16. श्री अशोक बजाज जी और श्रीमती आशा जोगलेकर जी को उनकी आत्मीय प्रतिक्रिया के लिए धन्यवाद .

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  17. वह मज़हब का व्यापारी है मज़हब ही व्यापार है उसका ,सिर्फ मतलब का है पुजारी , मज़हब ही हथियार है उसका.
    सशक्त... अर्थपूर्ण... बधाई

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